Swami Vivekananda
अग्निशिखा भगिनी निवेदिता
अपने समाज बन्धुअों के प्रति अनुकम्पा, सहानुभूति ये गुण विकसित करने का दायित्व हर माँ का है। उसके लिये विशेष रुप से प्रयत्नशील होना चाहिए। इस गुण के विकास से उन्हें दूसरों के दुख दर्द सहजता से समझ में अायेंगे। अपने देश पर किस प्रकार का व कैसा संकट अाया है वह भी समझ पायेंगे। इन्हीं में से उत्तम कार्यकर्ता तैयार होंगे। ये कार्यकार्ता देश के लिये तथा देशवासियों के लिए प्राणों की बाजी लगावेंगे । अाज तक इस देश ने हमें जो भी दिया है उसके प्रति हमारे मन में कृतज्ञता होनी चाहिए। इस माता ने हमें अन्न-जल दिया, मित्र दिये, धर्म, समाज, संस्कृति दी, जीवन विषयक श्रध्धा दी। यही तो अपनी माता है। उसे अब "महा" म
विश्वविजय का आत्मविश्वास
मेरे अमेरिकन बहनों एवं भाइयों, स्वामी विवेकानन्द का शिकगो में प्रवचन के प्रारंभ का यह संबोधन अजरामर हो गया। वास्तविक रुप से देखा जाय तो बंधुत्व भाव और आत्मियता यह हिन्दू समाज और संस्कृति का सहज भाव है। यहाँ की सैकड़ों पीढ़ियों के मानस में, इस मिट्टी में विकसित संस्कृति ने इसे स्थापित किया है। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द के मुख से वह सहज रुप से बाहर आया। अपने-अपने धर्म-दर्शन की श्रेष्ठता के संबंध में आत्ममुग्धता में डूबे हुए पाश्चात्य विद्धानों की दृष्टि में वह उदगार और इसमें अंतर्भूत भाव इससे पूर्व उन्होंने कभी अनुभव नहीं किया था। इसीलिए, सबको वह अदभुत लगा और समूचा सभागृह तालियों की गड़गड़ाहट से
अलासिंग पेरुमल
अलासिंगजी एक आदर्श शिक्षक थे। वह अपने विषय को इतना अधिक सरल करके समझाते कि, कमजोर से कमजोर विद्यार्थी भी उनके विषय को सहजता से समझ जाता। यह अलासिंगजी का बड़प्पन ही था कि, विद्यालय समय में विद्यार्थीयों को पढ़ने के अतिरिक्त समय में भी उनका मार्गदर्शन किया करते। उनकी दृष्टि में विद्यार्थी उनके लिये ईश्वर के समान था तथा पढ़ाना ईश्वर की पूजा थी। यही कारण था कि अलासिंगजी अपने विद्यार्थीयों के बीच अत्यन्त आदरणीय शिक्षक थे। एक आदर्श शिक्षक के रुप में ही उनका यश सम्पूर्ण चैन्नई में फैल चुका था।
स्वामी विवेकानन्द और अस्पृश्यता
सदियों से अस्पृश्यता और तिरस्कार भोगने वाले समुदायों में दो प्रकार के लोग हैं। कुछ में दास भाव आ गया है और कुछ में विद्रोही और आक्रामक तेवर दिखाई देता है। स्वामीजी दास-भाव से मुक्त होकर उनमें स्वाभीमान और आत्मविश्वास जगाने की जरुरत समझते हैं। दूसरी ओर वह आक्रोश को भी व्यर्थ मानते हैं । स्वामीजी कहतें हैं - "ब्राह्मणेत्तर जातियों से मैं कहता हूँ, उतावले मत बनो, ब्राह्मणों से लड़ने का प्रत्येक अवसर मत खोजते रहो।... तुमको आध्यात्मिकता और संस्कृत शिक्षा छोड़ने को किसने कहा ? तुम उदासीन क्यों बने रहे ? तुम अब क्यों कुड़कुड़ते हो ?
पथदीप
अपनी जीवन यात्रा सुखकर हो इसलिए पथदीप की आवश्यकता होती है। वह पथदीप होता है संस्कारो का। उसमें माँ-बाप, गुरुजन, बड़ों के आदर्श आदि का समावेश होता है। ऐसा ही पथदीप हमें स्वामीजी के कथाओं से मिलेगा। स्वामीजी के सहवास में कितने ही लोगों के जीवन में परिवर्तन आया। इतना ही नहीं उनके विचारों के प्रभाव के कारण पूरा विश्व गहरी नींद से जाग उठा।
यह कथाओं का पथदीप जैसे बच्चों को प्रेरणा देगा, आत्मविश्वास को जगायेगा वैसे ही अभिभावकों का भी मार्गदर्शन करेगा ऐसा विश्वास है।
Swami Vivekananda:Pioneer of Cultural Nationalism
Swamiji's Complete Works have been published besides innumerable research works and works by eminent thinkers comprising manifold dimensions of him no doubt, it is yet found lacking in certain areas. Illustratively, Vivekananda appeared before the nation and the world in his individual capacity. There is no dispute over it; but along with a host of great savants of his time, namely Dayananda, Bankim Chandra, Tilak and Aurobindo, he obviously constitutes a well defined school of thought, and which may be wisely entittled as the "Cultural Nationalism in Indian Perspective".
Swami Vivekananda in London
This is the only translation into English that we know of, of portions of the Bengali book Londoner Swami Vivekananda by his younger brother, Mahendranath Datta, who lived with him for much of his time in England, in1895 and 1896. The book was published in 1937 by Mahendra Publishing Committee, Calcutta. The book's author reports the events and remarks surrounding Swami Vivekananda and his close associates. He also includes his own profuse observations and theories regarding the teachings Swamiji gave in London.
